Wednesday, October 21, 2009

महाराष्ट्र चुनाव

१३ अक्टूबर को महाराष्ट्र में, २८८ विधान सभा सीटों पर उम्मीदवारों के चुनाव को वोट डाले गये. पूरे राज्य में ६० फ़ीसदी वोट डाले गये. मुंबई में पूरे राज्य की तुलना में मात्र ५२ फ़ीसदी मतदान हुआ, मुंबई के पाँश माने जाने वाले क्षेत्रों में बहुत ही कम लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया. ये ऐसे लोग हैं जो देश की अर्थव्यस्था के शिल्पकार हैं. अब सवाल उठता है कि उच्च-वर्ग या उच्च- मध्य वर्ग के लिये लोकतंत्र की भूमिका समाप्त हो गयी है? या उन्हे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की आवश्यकता नही रही.
गढ़चिरौली, जहाँ नक्सल संगठनों ने मतदान का बहिष्कार किया वहां ६२ फ़ीसदी मतदान हुआ. इस प्रतिशत को मीडिया जगत ने शुभ संकेतो के रूप मे ले, खूब वाह-वाही लूटी. यह खबर सरकार और मीडिया तंत्र के उस गठजोड़ का हिस्सा हो सकता है जिसके तहत अर्से से एक मुहिम चलाई जा रही है कि जहां-जहां नक्सल आंदोलन है वहां लोकतंत्र की सफ़लता से संघिय व्यवस्था को बल मिलता है? मीडिया के गलियारों से एक दूसरे तरह की खबरे भी आती है जो मामले का नया रूप उजागर करती है. १४ अक्टूबर को नागपुर से निकलने वाले प्रमुख अखबारों के विदर्भ संस्करणों में छ्पी खबरे इस मतदान प्रतिशत के गुणा-गणित के खेल को उजागर करती है. "बंदूक की नोक पर जबरन मतदान" जैसी खबरे मोटे-मोटे हेडिग्स में प्रकाशित होती है. गड़चिरौली जिले की ’आरमोरी’ विधान सभा क्षेत्र के अन्तर्गत जहां निर्वाचन आयोग की मतदान देने की सारी सुविधाएं होते हुए भी आदिवासी, वोट के लिये अपने घरों से बाहर नही निकलते है. पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों के ४०-५० जवान बंदूक की नोक पर उन्हे जबरिया वोट देने को बिवस करते है. वहां उपस्थित पत्रकारो-छायाकारों का दल पूरे वाकए को कवर करने का प्रयास करता है तो सबको, पी.एस.आई. राहुल गायकवाड़ के नेतृत्व में, दौडा़-दौडा़ कर पीटा जाता है. आदिवासियों का भी गणमान्य मुंबई वालों की तरह चुनाव जैसी चिजों पर से बिश्वास उठ गया है हालाकी दोनो के अपने-अपने आर्थिक, सामाजिक कारण है.
चलते-चलते आखिरी बात वर्धा की. यह शहर जो गाँधी की कर्मस्थली रहा है और जहां से देश के स्वतंत्रता आंदोलन को निर्णायक मोड़ दिया गया, जहां गांधी के नाम पर कई संस्थाए और आश्रम सक्रिय है वहां ठाकुर दास बंक द्वारा संचालित आश्रम के १३ लोग मतदान प्रक्रिया का बहीष्कार करते हैं. वैसे यह, वह आश्रम नही जहां गांधी रहा करते थे, किंतु अखबारों ने भ्रामक हेडिग्स के साथ इस खबर को छापा और पूरी न्युज में आश्रम की मूल पहचान को छुपाने का प्रयास किया गया. समाचार पत्रों द्वारा खबरों को सनसनी खेज बनाने का, यह पुराना हथकंडा रहा है. खैर बात ठाकुर दास बंक और अविनाश काकडे़ जैसे गांधीवादी विचारकों की. मतदान बहिष्कार के कारणों मे बंक ने लोकतांत्रिक प्रणाली पर सवालिया निसान लगते हुए कहा कि अब जन-तंत्र में जनता को मूलभूत सुविधाए देने का काम नही किया जाता है यह मात्र शासन करने वाले कुछ लोगों तक ही सीमित हो गया है जिसका वे बेजा इस्तेमाल कर रहे है.
महाराष्ट्र के तीन हिस्से और लोगों की लोकतंत्र के प्रति अपनी मान्यताए. एक चीज जो सभी में सामान्य है वह लोकतंत्र के प्रति अरुचि. सवाल है चुनाव किसका और किसके लिए.

Tuesday, August 25, 2009

हिंद युग्म पर प्रकाशित कविता

http://kavita.hindyugm.com/2009/08/aurat-nahin-utar-paati-kechul.html

Friday, August 21, 2009

पोला : बिदर्भ के लोकसस्कृति का त्योहार

नागपन्चमी से भारत मे त्योहारो कि शुरूवात होने लगती है , भारत जिसके बारे मे कहा जाता है कि ३०० किलोमीटर पर यहा पानी - बानी (भाषा) मे अन्तर दिखाइ देता है यह अन्तर वहा के जनजीवन कि लोक सस्कृतिय अवस्थाओ मे भी देखा जा सकता है खासकर वहा मनाए जाने वाले त्योहारो मे. लोक जीवन और लोक सस्कृति से सम्भन्धित ऐसा ही एक त्योहार "पोला"बिदर्भ के अन्चलो मे बड़े ही जोरदार तरिके से मनाया जाता है. "पोला" कृषि जीवन से प्रेरित त्योहार है. भारत एक कृषि प्रधान देश है और एक किसान के लिये पशु (बैल) धन उसकी सबसे बड़ी पुजी होती है.पशुओ (बैलो) के माध्यम से ही किसान धरती का सिना चिरकर अनाज का उत्पादन करता है, भावनात्मक स्तर पर बैल किसान के लिये कितने महत्वपुर्ण होते है इसकी ब्याखा प्रेमचन्द ने गोदान मे कि है खैर ये सब चर्चाए बाद के लिये हा तो पोला ऐसा त्योहार है जिसका किसान साल भर बड़ी बेसब्री से इन्तजार करते है.अमीर- गरीब सभी बड़े चाव और मस्ती से भादव महिने मे इस त्योहार को दो दिनो तक मनाते है. इस दिन किसान अपने बैलो को दुल्हे कि तरह सजाते है दूर से देखने पर ये बैल दुल्हे के लिये सजाइ गइ घोड़ी कि तरह दिखते है. घर कि महलाए बैलो का टिका-चन्दन करती है फ़िर घी के दिये से आरती उतारकर कृषक जीवन कि मन्गल कामना के लिये प्रार्थना करती है.
त्योहार के दुसरे दिन घरो मे काठ के नन्दी जो बाजारो से खरीद कर लाये जाते है उनकी पुजा घर मे स्थापना होती है ,पुरे घर मे उत्सव सा माहोल बना रहता है स्वादिष्ट पकवानो कि खुशबु से सारा घर भरा रहता है . पुरे घर परिवार के लोग पुजा घरो मे इकठ्ठा होते है पुरोहितो के द्वारा नन्दी का बड़े ही बिधि-बिधान से पुजन -अर्चन किया जाता है.
पुरूषो के लिये तो पोला बन्दिषो कि दिवार हि ढहा देता है इनको दो दिनो तक पिने-पिलाने कि पुरी छूट होती है. त्योहार जब अपने पुरे शबाब पर होता है तो शाम को एक जगह पर बैलो के मेले का आयोजन किया जाता है जहा बैलो के करतब करवाये जाते है.
लोक जीवन से जुड़ा बिदर्भ का यह त्योहार यहा के किसानो कि आत्मा मे बसता है बैलो के प्रति इनकी यह श्रद्धा एक बड़ा कारण हो सकता है कि यहा के किसान आज भी कृषि कार्य के लिये इनका उपयोग करते है.

Thursday, July 30, 2009

पथिक

अडिग मै शिला कि तरह
लहरो के थपेडो को सहने के लिये
प्यासो को , जल बन के बहने के लिये
मुझसे शान्त हो सके जो भूख किसी कि
तत्पर मै आहुति के लिये.
महिमामन्डित नही
बस पथिक
जिने कि राह पर जिने के लिये.

Monday, July 13, 2009

हिन्द-युग्म: अतीत का वहशीपन

हिन्द-युग्म: अतीत का वहशीपन

Sunday, July 5, 2009

सस्ती गजले

:१:
छ्प गये कितने बयान कागज पर
बन गये कितने मकान कागज पर
जिस्मो पर जख्म कुरेदने वाले
बन गये कितने महान कागज पर
अब मिलने मिलाने की फ़ुर्सत किसे
सिमट गये कितने जहान कागज पर

:२:
गम थी और खुशी थी
एक बूद जिन्दगी थी
हमने बाटी आधी आधी
एक टुक जिन्दगी थी
न जाने कितने किताब लिखे गये
वही हम वही जिन्दगी थी

Monday, June 29, 2009

दाये बाये जो दिखा

मुर्ति से नाही पारक से नाही, बदले तगदिरिया ना
माया दैद नोकरिया ना
कैसे बिताइ लम्बी उमरिया ,कठिन डगरिया ना
माया दैद नोकरिया ना
केउ न सुने हम दुखियन क बतिया
चाहता सब के नोटन क गठिरा
कैसे बिताइ केसे बताइ बडी कठिन डगरिया ना
माया दैद नोकरिया ना